शुक्रवार, 5 मार्च 2010
ज़िंदगी की तलाश में...
ज़िंदगी की तलाश में हम मौत के कितने पास आ गए
जब ये सोचा तो घबरा गए आ गए हम कहाँ
ज़िंदगी की तलाश में
हम थे ऐसे सफ़र पे चले जिसकी कोई भी मंज़िल नहीं
हमने सारी उम्र जो किया उसका कोई भी हासिल नहीं
एक ख़ुशी की तलाश में ये कितने ग़म हमको तड़पा गए
जब ये सोचा तो घबरा ...
सोचो हम कब इतने मजबूर थे जो न करना था वो कर गए
पीछे मुड़ के जो देखा ज़रा अपने हालात से डर गए
खुद के बारे में सोचें जो हम अपने आप से शरमा गए
जब ये सोचा तो घबरा ...
ज़िंदगी एक आह !
ज़िंदगी एक आह होती है
मौत उसकी पनाह होती है।
जुर्म जितने हुए है धरती पर
आसमाँ की निगाह होती है।
आदमी आदमी को छलता है
आदिमीयत गवाह होती है।
दिल्लगी तुम किसी को मत कीजो
ज़िंदगी तक तबाह होती है।
ऐब दूजे के मत बता मुझको
ऐसी बातें गुनाह होती है।
गहरा सागर है दिल का दरिया भी
कब कहीं उनकी थाह होती है।
मिट गई सारी चाहतें फिर भी
एक बस तेरी चाह होती है।
मौत उसकी पनाह होती है।
जुर्म जितने हुए है धरती पर
आसमाँ की निगाह होती है।
आदमी आदमी को छलता है
आदिमीयत गवाह होती है।
दिल्लगी तुम किसी को मत कीजो
ज़िंदगी तक तबाह होती है।
ऐब दूजे के मत बता मुझको
ऐसी बातें गुनाह होती है।
गहरा सागर है दिल का दरिया भी
कब कहीं उनकी थाह होती है।
मिट गई सारी चाहतें फिर भी
एक बस तेरी चाह होती है।
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