शुक्रवार, 5 मार्च 2010

ज़िंदगी एक आह !

ज़िंदगी एक आह होती है


मौत उसकी पनाह होती है।



जुर्म जितने हुए है धरती पर

आसमाँ की निगाह होती है।







आदमी आदमी को छलता है

आदिमीयत गवाह होती है।







दिल्लगी तुम किसी को मत कीजो

ज़िंदगी तक तबाह होती है।







ऐब दूजे के मत बता मुझको

ऐसी बातें गुनाह होती है।







गहरा सागर है दिल का दरिया भी

कब कहीं उनकी थाह होती है।







मिट गई सारी चाहतें फिर भी
एक बस तेरी चाह होती है।

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