शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

ज़रा बेरहम है मोहब्बत मेरी...

ये जिंदगी हर लम्हा मुझे तड़पाने लगी है
भूलने की कोशिश में वो और याद आने लगी है

उसे अपने दिल से मिटाऊं तो कैसे
जो धड़कन बनकर दिल धड़काने लगी है

सासों में उसी की महक आती है
वो हवाओं को खुशबू बन महकाने लगी है

ज़रा बेरहम है, मोहब्बत मेरी
होकर जुदा आज़माने लगी है

न जाने किस बात की सज़ा, दे रहा है ख़ुदा
इंतजार-ए-इश्क की हद आने लगी है

उसके बगैर ना जीना, ना तमन्ना जीने की
विरहा की अग्नि मुझे जलाने लगी है

हाल-ए-दिल कैसे करूं मैं बयां
जुदाई में जां मेरी जाने लगी है

तन्हाई मे अक्सर आती हैं उसकी सदाएं
वो शब्दों में ढलकर कविता बन जाने लगी है